न चहरे पर कोई शिकन थी, न
आँखों में मायूसी और नाही होंठो पर कोई सवाल। बस वो तो अपनी दुनिया में
मगन थे । तन ढकने के लिए शरीर पर कपड़ों के कुछ चिथड़े भर थे , पाँव नंगे थे
और राह मुश्किल थी जी हाँ, बहुत मुश्किल, आखिर लड़ाई अपने पेट से जो थी वो
दिन भर अपने पापी पेट को पालने के लिए सडकों की ख़ाक छानते रहे सड़को पर पड़े
कचरे को उठाते रहे । अपने मासूम से बचपन जो यूँही लुटाते रहे ।
शायद मैंने गलत सुना था कि 'बचपन बहुत अच्छा होता है' , सभी कहते थे कि बचपन में किसी की कोई चिंता, कोई फ़िक्र नहीं होती।
आज
इन बच्चों को सड़क पर इस तरह देखा तो मन में एक साथ हज़ारों सवाल फूट पड़े ।
इतनी छोटी सी उम्र में ये बच्चें ये सब क्या कर रहे हैं ? ये सब काम अपनी
मर्ज़ी से कर रहे हैं या फिर इनके घर वाले करवा रहें हैं ? क्यूँ इन मासूमों
से इनका बचपन छीना जा रहा है ?
मैं बच्चों को एक
टक देखता रहा पर उनसे बातें करनी की हिम्मत नहीं हुयी, मैं उन्हें तब-तक
देखता रहा जब-तक वो मेरी आँखों से ओझल नहीं हो गए ।
10 comments
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Replyवाह!बहुत खूब!कहाँ मिलता है सभी को एक-सा बचपन ...खेलने -कूदने की उम्र में पेट की खातिर जुटे हैं काम में ये बच्चे ।
Replyहृदय स्पर्शी रचना।
Replyएकदम सटीक भावपूर्ण सृजन
Reply
Replyबहुत ही सुन्दर सृजन...।
बहुत-बहुत आभार रविन्द्र जी
Replyआपको रचना पसंद आयी शुभा जी मेरा लिखना सार्थक हुआ
Replyआपका धन्यवाद मन की वीणा
Replyधन्यवाद सुधा जी
Replyआपका भी धन्यवाद संजय भास्कर जी
Replyजब आये लब पे तो दुआ कीजिए ।
हमारे लिए भी चंद अल्फाज अपनी जुबां कीजिए ।
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शुक्रिया,,,,,
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