उस ठिठुरती शाम में एक भिखारिन अपने हाल ही में जन्में बच्चे को खून जाम
कर देने वाली सर्दी से बचाने की नाकाम कोशिशें कर रही थी।
शाँल स्वेटरो से लदे लोग उस शाम ठिठुरते और काँपते नजर आ रहे थे
फिर उस भिखारिन की क्या बिसात जिसके तन पर कपडों के कुछ चिथड़े भर थे।
ओस की नन्ही-नन्ही बूँदें मानव शरीर और जमीन की छाती में किसी नासूर की तरह समाती जा रही थी. कोहरे की चादर ओढे वो शाम लम्हा-दर-लम्हा ठंडी होती जा रही थी।
शायद शहर की सबसे ठंडी शाम थी।
मौसम की इस बदसलूकी पर जैसे खींज गयी थी वो,
अपने बच्चे को जोर से अपनी बाहों में जकडा और आसमान की ओर देखते हुए जोर से जोर
से रोने लगी
उसके बहते आँसू जैसे भगवान से कह रहे हो कि कुछ तो रहम करो हम बेघरों पे
वो घन्टों उस बेरहम ठण्डी शाम में ठिठुरती और सुबकती रही
पर उसकी ठिठुरन और आँसूओं का असर न भगवान पे हुआ न किसी इंसान पे,
वो रोती-बिलखती शहर की गलियों में भटकते-भटकते एक चौराहे पे जा पहुंची
वहां पहुंच कर उसने देखा कि कुछ लोग एक गोल घेरा बना कर बैठे हुए थे और
उनके बीच में जलती-बुझती सी आग जल रही थी
वो तेज कदमों से उस ओर बढऩे लगी,
वो आग के पास पहुँचती तब तक एक-एक करके लोगों का झुंड वहाँ से छट चुका था।
ठंड इतनी बढ़ चुकी थी कि सहन करना मुश्किल हो रहा था शायद इसीलिए लोग वहाँ
से उठकर अपने-अपने घर जाने लगे थे।
रात भी दस्तक देती जा रही थी
और लोगों की चहल-पहल सन्नाटे में बदलती जा रही थी। घने कोहरे और जान लेवा
ठंड की वजह से चारों ओर डरावना सा मौहाल था। ऐसे में वो भिखारिन माँ अपने बच्चे को लिए उस अदबुझी आग के सहारे बैठी थी।
रात होते ही ओस तेजी से गिरने लगी
अदबुझी आग अब बिल्कुल बुझ चुकी थी। वो भिखारिन माँ पागलों की तरह छिपने के लिए छत ढूँढने लगी पर उसे न छत मिली न आसरा। राम जाने उस भिखारिन और उसके बच्चे का क्या हुआ होगा।
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2 comments
Click here for commentsभावपूर्ण रचना..
Replyबढियाँ.
बहुत-बहुत शुक्रिया
Replyजब आये लब पे तो दुआ कीजिए ।
हमारे लिए भी चंद अल्फाज अपनी जुबां कीजिए ।
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शुक्रिया,,,,,
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